Friday, January 16, 2009

इश्क

ये उन दिनों की बात है जब मैंने सोचना शुरु किया था
दिनांक १९ नवम्बर १९९९
महफिल तमाम घूमें हम
आशिकों की तरह बदनाम न थे,
तुमने हम से दिल जो लगाया
बदनामी का किस्सा आबाद हो गया,
हर शहर मैं हो गयी पहचान मेरी
पहचान छुपाना भी दुश्वार हो गया,
मोहब्बत थी तुम्हारी या नशा था
मैं हर तरफ़ से लाचार हो गया,
सोया करते थे हम भी कभी
अब नींद को भी हमारी इश्क-के -बुखार हो गया,
खेल क्या खेला नज़रों से तुमने
मैं तुम्हारे रकीबों का शिकार हो गया ,
नाम मेरा न था दीवानों मैं
आज दीवानों मैं, मैं भी शुमार हो गया,
सरफ़राज़ से ''सैफ'' हो गया देखो
जब से तुम्हारा दीदार हो गया

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