ये उन दिनों की बात है जब मैंने सोचना शुरु किया था
दिनांक १९ नवम्बर १९९९
महफिल तमाम घूमें हम
आशिकों की तरह बदनाम न थे,
तुमने हम से दिल जो लगाया
बदनामी का किस्सा आबाद हो गया,
हर शहर मैं हो गयी पहचान मेरी
पहचान छुपाना भी दुश्वार हो गया,
मोहब्बत थी तुम्हारी या नशा था
मैं हर तरफ़ से लाचार हो गया,
सोया करते थे हम भी कभी
अब नींद को भी हमारी इश्क-के -बुखार हो गया,
खेल क्या खेला नज़रों से तुमने
मैं तुम्हारे रकीबों का शिकार हो गया ,
नाम मेरा न था दीवानों मैं
आज दीवानों मैं, मैं भी शुमार हो गया,
सरफ़राज़ से ''सैफ'' हो गया देखो
जब से तुम्हारा दीदार हो गया
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